तलाश...

तलाश है मुझे उन लफ्जों की,
तेरे हुस्नको जो बयाँ करें,
तलाश मुझे उन तरीकों की भी है,
मेरे इश्क़ को जो बरक़रार करे,
एकही तो आरजू थीे तुझे पाने की मेरी,
और तुझसे ही हम आज अजनबी हो गए,
क्यों तुम यूँ बेवज़ह अनजाने हो गए,
बातों बातों में क्यों हम बेज़ुबाँ हो गए...
तलाश है मुझे उस मुस्कान की,
खिलखिल थी जिससे दुनिया मेरी,
तलाश मुझे उस रौशनी की भी है,
झिलमिल थी जिससे गलियाँ मेरी,
जिन्दगी कभी जीते थे तेरे सायें में हम,
आज तेरी परछाई ने भी रुख़ मोड़ लिया है,
क्यों तुम हमसे यूँ बेवफ़ा हो गए,
इतनी बेरहमींसे क्यों तुम बेगाने हो गए...
तलाश है मुझे तेरी खुशबू की,
मेरी शायरी में जो महकती रहे,
तलाश मुझे मेरी दीवानगी की भी है,
तेरे इश्क़ में जो अक्सर बहकती रहे,
तेरे फासलों में कुछ नजदीकियाँ सी है,
बहारों में भी तुमबिन वीरानियाँ सी है,
क्यों बेमंझिल हो गए मेरे रास्ते सभी,
साथ चलते चलते क्यों हम भटक गए...
ये कैसी है तलाश जिसमें हम खुदसे ही गुमशुदा है,
मदहोशीे तेरे इश्क़ की हमपे आजभी हदसे ज्यादा है,
यूँही नहीं हम जिन्दगीसे यूँ रूठे है,
सब किस्से-कहानियाँ इसके सरासर झूठे है,
शोर जिन्दगी का उसकी ख़ामोशियों में छिपा है,
और हम बातों का मतलब तलाशने में लगे है,
तलाश में तेरी हम हर गम हँसके झेल रहे है,
तन्हाई में अश्क़ों से नहीं गझलों से खेल रहे है...
- स्वप्निल संजयकुमार कोटेचा

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