उस सामनेवाले मकान के तीसरी मंझिल पर दो नौजवाँ दोस्त रहते थे...

उस सामनेवाले मकान के तीसरी मंझिल पर दो नौजवाँ दोस्त रहते थे...

आज बेशक़ उन कवाड़ों पे ताले लगे पड़े है,
पर कभी ये चौखट रंगीन कंदीलोंसे झिलमिलाती थी |

वो जो खिड़कियों ने अभी तो थोड़ा जंग पकड़ लिया है,
ये वही खिड़कियां है जो हर ईद, हर दिवाली पे रंग दी जाती थी |

ये जो छत पे कबाड़ी का सामान दिख रहा है,
ये वही छत है जहाँ वो दोनों रातभर तारे गिना करते थे |

वो दांयीवाली कुर्सी 'राम' की और ये बांयीवाली 'रेहमान' की हुआ करती थी,
और दोनों के बीच में रखें इस मेज के ऊपर वो जो 'राखदानी' है ना,
उसमे वो दोनों अपनी सिगरेटों को बड़े ही रईसी अंदाज में छलकाया करते थे,
और फिर कश-दर-कश वो अपनी जिंदगी की कश्मक़श बयाँ करते थे |

ख़त्म हो जाती जो एक सिगरेट तो दूसरी जलाया करते थे और,
जब जलाते थे दूसरी तो उसके साथ वो अपनी सारी परेशानियाँ भी जलाते थे |

उस सामनेवाले मकान के तीसरी मंझिल पर दो नौजवाँ दोस्त रहते थे...

रात-रातभर दोनों अपने सपनों के बारे में सोचते थे, बाते करते थे,
खुली आँखों से सपने देखना दुनिया में शायद वही दोनों जानते थे | 

एक हिन्दू था, एक मुसलमां - पर अज़ान की आवाज से कोई परेशान नहीं था,
दिवाली के पटाखों के शोर से भी कोई हैरान नहीं था | 

सुबह सवेरे दोनों गईं के बारह सूर्यनमस्कार करते थे,
रमजान की रात में चाँद का इंतज़ार दोनों बेतहाशा करते थे |

ईद की बिर्याणी और खीर पे दोनों पागलों से टूट पड़ते थे,
दिवाली के नमकीन और मिठाईंयाँ चार दिन भी नहीं रहते थे | 

उस सामनेवाले मकान के तीसरी मंझिल पर दो नौजवाँ दोस्त रहते थे...

आज अगर देखो तो खिड़कियों से टपकते बारिश के पानी से दीवारों पे दाग़ से पड़े हुए है,
पता नहीं वो बारिश का पानी है या ये दीवारें ही रो पड़ी है | 

छत की मुंडेर में भी अब दरारें आ रही है, ये दरारें भी मज़हब की ही होगी शायद,
क्योंकि सुना है ऐसी ही कुछ दरारें इन्सानों के दिलों में भी आ रही है | 

जैसे उजड़ गयी है मकान की ये तीसरी मंझिल आज,
सुना है, बाजूवाले गली में  एक मंदिर और एक मस्जिद उजड़ गयी है | 

कुछ ही दिन पहले की बात है - 
उस सामनेवाले मकान के तीसरी मंझिल पर दो नौजवाँ दोस्त रहते थे...

बैठे थे दोनों रोज की तरह ही अपनी परेशानियों को फूंकते एक दिन,
तभी 'रेहमान' उठ के अंदर चला गया और मिठाई का डिब्बा लाया | 

बोला - भाईजान, अम्मी ने मेरी शादी तय कर ली है,
ये देखो उसकी तस्वीर, मैंने तो अभी से तीन बार क़बूली फ़रमायी है | 

'राम' भी गया दौड़ता अंदर, वो भी तो रसगुल्ले लाया था,
अपनी छोटी बहन के लिए उसने भी एक होनहार वर पाया था | 

यहाँ 'राम' और 'रेहमान' एक दूसरे को मिठाई खिला रहे थे, 
वही बाजूवाली गली में उनके नुमाइंदे एक दूसरे के सर काट रहे थे | 

कुछ इस तरह के हालात हम जीते रहते है जिनके जिम्मेवार हम खुद नहीं होते,
बहोत ज़ालिम, बहोत बेरहम है ये दुनिया, चाहो न चाहो ये दुनियावाले हमें शिकार बना ही लेते है | 

बस ऐसे ही ये दोनों भी बन गए इस बेरहम दुनिया का शिकार ,
जहाँ 'केशरी' झंडा लेके लोग 'हरे' से लड़ पड़े थे | 

फूल की जगह पंडित के हाथ में लाठी आ गयी थी,
मौलवी ने भी अपने हाथ में तलवार उठा ली थी | 

ढूंढते-ढूंढते 'राम' और 'रेहमान' को लोग हैवान बन गए थे, 
छत पे तो वो दोनों फ़िक्रों को हवा में उदा रहे थे |  

पंडित बोलै राम से - उस मुसल्ले को हमारे हवाले कर दो,
मौलवी बोलै रेहमान से - ये लो तलवार इस काफिर का सर कलम कर दो | 

उस सामनेवाले मकान के तीसरी मंझिल पर दो नौजवाँ दोस्त रहते थे...

हाथ पकड़ के वो एक दूसरे का बहोत देर तक डटें रहे,
हैवानियत के उन दरिन्दोंसे दोनों इंसानियत की भीख़ माँगते रहे| 

तड़प-तड़प के, चीख-चीख के एक दूसरे के लिए मार खाते रहे, 
पर कहते रहे - यही अगर तुम्हारे भगवान का रास्ता है,
और यही अगर तुम्हारे ख़ुदा का गुलिस्ताँ है,
तो हम दोनों को ना तुमसे, ना तुम्हारे ख़ुदा से कोई वास्ता है | 

हथियार तो सभी के पास थे तो पता नहीं चला की 'राम' को किसने और 'रेहमान' को किसने मारा,
इतना जरूर पता चला है की, उनके ख़्वाबों को दुनियावालों ने उस रात कुचल डाला | 

रसगुल्ले चाशनी की जगह खून में डूबे पड़े थे, 
और मिठाई का डिब्बा भी उनकी ही तरह पैरों के नीचे कुचल गया था | 

पूरा छत खून से लतपत था, पर दोनों ने एक दूसरे साथ ना छोड़ा ,
कोई प्रार्थना, कोई दुआ काम ना आयी, जो आखिरतक साथ रहा वो उनका याराना था | 

पहिली सात-आठ सीढ़ियाँ तो दोनों के खून से धुल गयी थी,
पर आखिरी दो सीढ़ियों में लोगों के पाँव की मिटटी लगी थी | 

सफाई का बहोत शौक था दोनों को, मैल बिल्कुल भी पसंद ना था,
पर इस दुनिया की गंदगी को धो सके इतना खून उनकी रगों में ना था | 

उस सामनेवाले मकान के तीसरी मंझिल पर दो नौजवाँ दोस्त रहते थे...

आज भी गली-मोहल्लोंमें  लोग अक्सर झगड़ते है, 
पर सामनेवाले मकान के उस तीसरी मंझिल पर अब 'राम' और 'रेहमान' नहीं रहते |  
ना रहते वो उस बाजूवाली गली के मंदिर और मस्जिद में,
ना किसी स्वर्ग में, ना किसी ज़न्नत में,
हैवानों ने कर लिया कब्ज़ा कुछ इस तरह से हर इन्सान के इल्म पर, 
के शायद वो अब कहीं नहीं रहते, कहीं नहीं रहते, कहीं नहीं रहते | 

- स्वप्निल संजयकुमार कोटेचा 
२६.०६.२०१७ 





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