'खुदखुशी'

*खुदखुशी*

माँ,
देख ले आज मैं बिस्तर पे सोया हूँ
और इसमें एक सिलवट भी नही आयी..

तू चिल्लाती थी ना हमेशा देख आज
मैं इस दुनिया के तौर तरीके सिख गया हूँ।

घर की हर एक चीज़ अपनी अपनी जगह पे है।

और हां खिड़कियों पे परदे भी लगा दिए है...
अब वो सामनेवाली आंटी अपने घर में नही झाँक पाएगी।

पानी की बोटल का ढ़क्कन लगा के रखा है,
TV का रिमोट भी सही जगह रखा है।

सब रखा है अपनी अपनी जग़ह पे,
बस मैं बिखरा पड़ा हूँ यहाँ।

सब अपनी जगह पे है,
बस मेरा मोबाइल हाथ से छूट गया
और गिर गया है जमीन पर...
शायद टूट गयी है कांच उसकी मेरे हर सपने की तरह।

तू बोलती थी हमेशा माँ की शराब ज़हर है,
इसलिए मैंने आज तक हाथ नही लगाया।
बस मैं आज ख़ुद को रोक नहीं पाया,
शराब तो नहीं पी मैने बस दो बूँद ज़हर ही पी लिया।

वो देख एक छोटीसी शिसी पड़ी है कोने में
मेडिकल स्टोर से चुराई हुइ,
बस यही मेरी पहली और आख़री चोरी है।

मुझे पता है तुझे अच्छा नही लगेगा,
तू होती तो बहोत डाँटती मुझे।

बस थोड़ी देर और...

फिर में पहुंच जाऊंगा तेरे पास...
फिर तू जी भर के डांटना मुझे,
चाहे तो दो थप्पड़ लगा देना।

ज़िन्दगी की मार खा-खा के दिल खट्टा हो गया है,
शायद तेरे थप्पड़ से बहल जाएगा।

फिर जरा मेरे बालों को सहलाना, मेरे चेहरे पे हाथ फेरना
और प्यारसे अपनी गोद में सुलाना।

बहोत दिनों से सोया नहीं हूँ ठीक से,
देख आज सोया हूँ इधर चूपचाप... बिना कुछ बोले।

थोड़ी देर राह ताकना बस अब कुछ आख़िरी साँसे ही बाकी है।

मांग लूँ तो कुछ साँसे उधार दे देगी ये जिंदगी,
पर नहीं... मैं नही मांगूँगा...
ज़िन्दगी के साथ मुझे बहोत 'इगो' प्रॉब्लम है।

जितना देती है उससे कई ज्यादा सूत समेत वसूल करती है।
इसकी आदत मुझे अच्छेसे पता है।
कुछ पल की हंसी के बदलेमें इसने मुझे उम्रभर रुलाया है।

वैसे तो थोड़ी देर पहले किसीने दरवाज़े पे दस्तक़ भी दी थी...
पर मैने दरवाजा खोलने की कोशिश नही की।

हां थोड़ी देर पहले किसीने दरवाज़े पे दस्तक़ भी दी थी...
पर मैने दरवाजा खोलने की कोशिश नही की।

कोई परेशानी ही होगी शायद,
वैसे भी तकलीफ और परेशानियों के सिवा
मेरे दर पे आज तक दस्तक ही किसने दी है?

थोड़ीसी ताक़त जुटाता तो शायद उठ पाता,
डॉक्टर को फ़ोन लगा पाता।

पर नही अब जीने की ख़्वाहिश नही रही।
कौन उठेगा फिर, कौन साँसे लेगा,
कौन फिर ख़्वाब सजायेगा
और कौन फिर उन्हें टूटता हुए देखेगा।

कौन करेगा ज़िन्दगी से दो हाँथ,
कौन खायेगा दर दर की ठोकरे,

अब बस... अब और जीने की ख़्वाहिश नही रही।

पर तू फ़िकर मत कर माँ,
कोई बेचारा नहीं हूँ मैं,
बस ये ज़िन्दगी मुझे रास नहीं आयी।

उम्रभर इस ज़िन्दगी से जीतने के लिये तड़पता रहा,
और हर बार ये ज़िन्दगी मुझे हराती आयी है,
आनेवाली हर मुश्किल से मैं दिलों जान से लड़ता रहा,
और हर बार ये नई मुश्किल ले के आयी है।

पर नहीं,
अब और नहीं,
आज ज़िन्दगी खुद हारनेवाली है।

और खुश हूँ बहोत मैं आज मौत को गले लगाकर...
शायद इसीलिए ऐसे मरने को लोग 'खुदखुशी' कहते है।

बहोत देर हो गयी है अब,
सब धुंधला धुंधला लग रहा है,
घड़ी के काँटे भी मदहम चल रहे है
और मेरा सफर ख़त्म हो रहा है।

पर तू फ़िकर मत कर माँ,
कोई बेचारा नहीं हूँ मैं,
बस ये ज़िन्दगी मुझे रास नहीं आयी।

ये सफ़र बस ख़त्म ही होनेवाला था,
तभी मेरी घड़ी का अलार्म बजने लगा।

जीते जी तो सारे सपने तोड़ दिए
और मरने का सपना भी ज़िन्दगी ने पूरा होने नही दिया।

फिर कान पकड़ के जगाया मुझे और बोली,
अभी तेरा इम्तिहान ख़त्म नही हुआ है,
ख़ुद को जब तू सिकंदर कहता है,
तो थोड़ीसी परेशानियों से ऐसे क्यों डरता है?

मौत को मेहबूब बनाने चला है तू,
पहले दिल खोलकर मुझसे प्यार तो कर,
जीतना है अगर मुझसे तो
खुद के सपनों से परहेज़ ना कर।

क्या जरूरत है किसी और हमसफर की तुझे,
जब खुद ज़िन्दगी तेरी महबूबा है।
ना रास्तों की, ना मंझिलों की फ़िक्र कर,
जब दिल में तेरे कुछ कर दिखाने की चाहत है।

चट्टानों से टकराने का भी न होगा डर तुझे,
जब समझेगा साहिल तू तूफानों को,
हर राह बनेगी आसान तेरी,
जब हौसला रखेगा पार करने का सौ आसमानों को।

नादाँ इस दुनिया के लोग अक्सर नजरअंदाज करते है दीवानों को,
पर इतिहास के पन्नों पे अमर है वही,
दिल में जिसके दीवानगी और
जिन्दगी से जिसे मोहब्बत हो।

- स्वप्निल संजयकुमार कोटेचा
०६.०७.२०१७

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